Tuesday, 8 December 2015

गुफ्तगु

कल रात खुदा से हमारी गुफ्तगु हुई।
कुछ बाते हमने कही कुछ उसकी दिल को छुई।

राज तो बहोत थे इस फराजके पर कुछ हमने खुदासेभी छूपाकर रखे थे।
कुछ अल्फाजोंमे बयां हो गये कुछ उसने आंखोसे पढ़ लिये।।

गलतीया तो की थी हमने शायद कुछ गुनाह़ भी।
सज़दे तो हम हरदिन करते है पर कभी माफीके लिये दुआ न की।

हमने तो बस हमारे गुनाहोकी सजा मांगी थी।
पर खुदाने रोते हुए कहा,
फराज, हमने तो प्यार करना तुमसेही सीखा है।

सुबहा जब निंद खुली कल खिले फूल को मुरझाते देखा।
पता चला के मुरादे पुरी करनेवाला वो खुदा नही खुद होता है।
-सिद्धेश्वर

" देवाक् काळजी "

               " देवाक् काळजी "
रात्र,निज शांत वारा परि मज सावली चंद्रमाची।
अतूर अंगण सुगंधा या वाट पारीजातकाची ।।
कुजबूजतो काजवा परि निरव तो निर्झर।
वल्लीवरची रातराणी उभी वटारूनी चक्षू टरटर।

पथिक, निरंतर चल, तूज सारथी न अखंड कोणी।
बाहूपाशात तिमीरसत्य अवघे पण त्या चंद्रमाचा तू ऋणी।।
कधी निर्झरांचा निरव तर कधी छनछनती नूपुरे।
निपाड श्रद्धा त्या हरिवर परि यत्न न पडो कधी अपूरे।।

मन बंदिस्त वा निश्चल तव, हो स्वतःचा सोबती।
आत्मनिःश्चय अन् विश्वास, ठेव ही दृढ निती ।।
होऊनी निपूण तू चाल निडर जिंकित एकेक बाजी।
रथी, होईल रम्य पहाट, तू हो मार्गस्थ, तूझी देवाक् काळजी।।
                                           -सिद्धेश्वर